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भारतीय नौसेना: दहशतगर्दों के लिए कहर मार्कोस

नौसेना के जिन मरीन कमांडो "मार्कोस" ने मुंबई पर हमला करने वाले आतंकवादियों के छक्के छुड़ाए उनसे दहशतगर्दो की रूह कांपती है। इन्हें कश्मीर में दाढ़ी वाली पफौज, जल मुर्गी और मगरमच्छ जैसे नाम से पुकारा जाता है। मार्कोस कमांडो बेहद कुशल स्काई ड्राइवर तथा समुद्री गोताखोर हैं। दाढ़ी रखने की इन्हें छूट है जिस कारण इन्हें दाढ़ी वाली फौज भी कहा जाता है। उनका नारा है मिलिटेंट से मिलिटेंट की तरह भिड़ो...

साधना सिंह


मुंबई के ताज होटल में मार्कोस कमांडो की तीन टीमें कार्रवाई के लिए गई थी जबकि दो टीमों ने ट्राइडेंट होटल तथा दो प्रहार टीमों ने होटल ओबराय में मोर्चा संभाल रखा था। इस कार्रवाई के दौरान दो मरीन कमांडो घायल भी हुए पर उनका हौसला नहीं टूटा और उन्होंने होटल के कमरों में घुस-घुसकर आतंकवदियों का पीछा किया। काली वर्दी, मुंह पर काला कपड़ा और आंखों पर चश्मा पहले ये मार्कोस हूबहू आतंकवादी लगते हैं और समुद्री लुटेरों के लिए इनका नाम ही कहर है।
भारतीय नौसेना की स्पेशल यूनिट है ‘मरीन कमांडो पफोर्स’ जिसका गठन 1987 में किया गया। दरअसल समुद्र में बढ़ते खतरे को देखकर कापफी समय से एक ऐसे खास बल की आवश्यकता महसूस की जा रही थी जो समुद्री लुटेरों और आतंकवादियों को मुंहतोड़ जवाब और समुद्री आॅपरेशन को अंजाम दे सके। इनका मकसद जल से जमीन पर युद्ध छेड़ना है।
इसके पहले नेवी को विभिन्न विनाशकारी युद्ध निरस्त्रीकरण प्रशिक्षण तथा यूनिट को मरींटाइल एक्सरसाइज में शामिल किया जाता था। 1983 में 340वीं आर्मी इंडिपेंडेट ब्रिगेड जिसमें जल सेना के तीन बटालियन जो त्रिवेन्द्रम में तैनात थे, को स्पेशल मरींटाइम यूनिट में शामिल किया गया। दुश्मनों पर आक्रमण के लिए एयरबोर्न और मरीनटाइम दोनों साथ मिलकर कार्रवाई करते थे। इसके बाद भारतीय नेवी ने विभिन्न यु(ाभ्यास के दौरान अपनी ताकत का प्रदर्शन किया जिसमें 1984 में अंडमान द्वीप का तथा 1986 में गोवा का प्रदर्शन प्रमुख है। गठन के कुछ महीनों के भीतर ही इसने पहली कार्रवाई लिट्टे के खिलापफ की। मार्कोस को दो साल की कठिन ट्रेनिंग दी जाती है। पहले चरण के अन्तिम महीनों में कई कठोर शारीरिक प्रशिक्षण के दौर से गुजरना पड़ता है। इसमें 50 पफीसदी लोग ही पास हो पाते हंै। इसमें पास होने वालों को पिफर नौ महीने तक विभिन्न प्रकार के हथियार और आधुनिक तकनीकी की जानकारी दी जाती है ताकि वे मोर्चे पर कमजोर न पड़े। यह सारा प्रशिक्षण कमांडो स्कूल सिरसा में दिया जाता है। इसी के साथ उन्हें आगरा तथा कोचीन में पैराशूट तथा ड्राइविंग का प्रशिक्षण दिया जाता है। पहले दो महीने के कठोर प्रशिक्षण के बाद उन्हें समूह में शामिल कर नए अभ्यास के रूप में निर्देश पालन सम्बन्धी प्रशिक्षण दिया जाता है। यु( संबंधी यह प्रशिक्षण एक वर्ष का होता है। प्रशिक्षण के दौरान ये मुख्यतः काउंटर टेरेरिस्ट ऑपरेशन कलाबाजी में दक्ष होते हैं। दो वर्ष की ट्रेनिंग खत्म होने तक प्रशिक्षणार्थियों में से 15 से 20 पफीसदी ही मार्कोस में शामिल हो पाते हैं। चयनित मार्कोस को दूसरे इंडियन स्पेशल पफोर्स की तरह ‘पर्वत घटक स्कूल’, तवांग (अरुणाचल प्रदेश) भेजा जाता है, जहां उन्हें उच्च किस्म की कमांडो ट्रेनिंग दी जाती है।
इस यूनिट की संख्या बहुत ही गोपनीय है, किन्तु सूत्रों के अनुसार इन जाबांजों की संख्या 2000 है। दस समूहों में विभाजित इन जाबांजों के प्रत्येक समूह में 200 मार्कोस हैं। वर्तमान समय में तीन मुख्य समूह मुंबई (पश्चिम), कोचीन(दक्षिण) तथा विजांग (पूर्व) में नेवल कमांडोज के रूप में कार्य कर रहे हंै, लेकिन समय के साथ से मेरिन इंपफेंटरी की भूमिका निभाते हैं जिसे 340वीं ब्रिगेड के नाम से जाना जाता है। इस ब्रिगेड की विशेषता यह है कि इनमें व्यावहारिक तौर पर कमांडो पफोर्स की तरह लचीलापन है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि वह त्वरित गति से जल, थल तथा आसमान की किसी भी सेना के साथ मिलकर ऑपरेशन को अंजाम दे सकते हैं। इन जाबांजों को परंपरागत रूप से 7.02 एमएम आसान राइपफल और स्टेलिंग एमके 4, सब मशीनगन, एके-47 असाल्ट राइपफल और एमपी मशीनगन जैसे अत्याधुनिक हथियारों से लैस किया जाता है। इन हथियारों में परिस्थिति के अनुसार प्रयोग करने की क्षमता होती है। मार्कोस प्रशिक्षण किसी भी भारतीय सैनिक ही नहीं अपितु पश्चिमी देशों में दी जाने वाली ट्रेनिंग से भी कठोर तथा गुणवत्तायुक्त होती है।


मार्कोस कमांडो ने 23 समुद्री लुटेरे जिंदा दबोचे

भारतीय नौसेना के जाबाज मार्कोस कमांडो ने अदन की खाड़ी में एक बार पिफर जोरदार कार्रवाई करते हुए 23 समुद्री लुटेरों को जिंदा दबोच लिया। इन लुटेरों को पकड़ कर जंगी पोत आईएनएस मैसूर पर लाया गया और कानूनी पहलुओं की पड़ताल की जा रही है। अदन की खाड़ी में तैनात नौसेना के विध्वंसक पोत आईएनएस मैसूर को बीते माह दोपहर बारह बजे समुद्री लुटेरे अगुवा करने की कोशिश कर रहे थे। नौसेना के सूत्रों के अनुसार पकड़े गए समुद्री लुटेरों में 13 सोमारिया और 11 यमन के है। भारतीय पोत अदन की खाड़ी में 150 समुद्री मील दूर पूर्व में थी। राहत पुकार मिलते ही जंगी पोत आई एनएस मैसूर से सशस्त्रा हेलीकाप्टर के साथ मार्कोस कमांडो को रवाना किया था। उसी समुद्री इलाके में रूस तथा अमरीका की नौ सेनाओं की इस मिली जुली कार्रवाई में एक बार पिफर मार्कोंस ने पहले करते हुए समुद्री लुटेरों को निहत्था कर दिया। सूत्रों के अनुसार इस कार्रवाई में सात एके-47 रायपफलें। 5.56 एमएम की गन। 7.62 बोर की पिस्तौल और 13 मैगजीन बरामद की गई। एक जीपीसी और एक मोबाइल सेट भी बरामद किया। समुद्री लुटेरे दो नौकाओं में सवार थे और इथियोपिया के ध्वज वाले पोत को अगवा करने जा रहे थे। भारतीय जंगी पोत वहां से 123 समुद्री मील दूर था। भारतीय नौसेना के हथियारबंद हेलीकाप्टर को आता देख लुटेरे मर्चेट पोत को छोड़कर अपनी नौकाओं से भागने लगे, ल्ेकिन आईएनएस मैसूर ने उनका पीछा किया । लुटेरों की नौका के पास आते ही भारतीय मरीन कमांडो ने उस पर धवा बोल दिया। लुटेरों ने खुद को चारो ओर से घिरा पाकर हथियार डाल दिये। प्रवक्ता ने बताया कि लुटेरे सलाहुद्दीन नाम की हरी नौका पर सवार थे और आठ-दस मीटर लम्बी इस नौका के साथ उनकी छोटी नौका भी थी।

टेस्ट आलेख

साप्ताहिक समीक्षा (1) : 27 जुलाई 2007 (शुक्रवार)।
(16 जुलाई, 2007 से 22 जुलाई, 2007 के मध्य प्रकाशित कविताओं की समीक्षा)

'हिंद-युग्म' के सभी मित्रों का अभिवादन करते हुए "साप्ताहिक समीक्षा' का यह नया स्तंभ आज से आरंभ किया जा रहा है। स्तंभकार विनम्रतापूर्वक इस अवसर पर यह निवेदन करना चाहता है कि उसे ऐसा कोई भ्रम नहीं है कि वह रचनाकारों को किसी प्रकार की सीख दे सकता है। उसके निकट तो समीक्षा रचना को समझने की, आत्मसात करने की और उसके सौंदर्य को उद्घाटित करने की प्रक्रिया का नाम है। कविता के आस्वादन के साधक और बाधक तत्वों पर चर्चा इसके साथ प्रासंगिक रूप से होती रहेगी, परंतु इसका उद्देश्य रचनाकारों को बड़ा-छोटा या ऊँचा-नीचा सिद्ध करना नहीं है। समीक्षक यह भी मानकर चलेगा कि विवेच्य रचनाकार इतने ईमानदार हैं कि अपनी रचना की मौलिकता की जिम्मेदारी ले सकें। अस्तु ........

हाँ, आरंभ में ही अपने उस शुभचिंतक के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना मेरा कर्तव्य है, जिनके स्नेह, आग्रह और आदेश के कारण मैंने स्वयं का "यूनिसमीक्षा' के इस मायाजाल में फँसना स्वीकार किया है। साथ ही, 'हिंद-युग्म' के नियंत्रक और सहयोगियों के प्रति भी आभारी हूँ, जिन्होंने मुझे प्रेमपूर्वक बुलाया है, स्वीकार किया है। ......

इस बार पहली रचना के रूप में हमारे सामने है एक ग़ज़ल 'वो गुमनाम नहीं होगा ......'। रदीफ, काफिया और बहर के निर्वाह की दृष्टि से रचना अच्छी है, इसमें संदेह नहीं। पहले शेर में "हँसी' और "आँसू' का द्वंद्व सुंदर है, लेकिन आँसू का वजन ज्यादा हो गया है। इसके स्थान पर "अश्रु' या "अश्क' उपयुक्त रहता। इसी तरह आखिरी शेर में "कई' का वजन बढ़ रहा है। इस ग़ज़ल की विषयवस्तु काफी परिचित है लेकिन कवि ने द्वंद्वों का प्रयोग करके उसकी अभिव्यक्ति को धार देने का प्रयास किया है। इस दृष्टि से "अकेले कदमों से भी धूल उडाने' और "दूर जाने' तथा "वापस आने' का अच्छा निर्वाह हुआ है। पढ़ने-सुनने में सूरज संबंधी यह शेर खासा अच्छा लग सकता है - कह दो लेकर अपना उजाला, कभी न फिर सूरज निकले/जंगल में रहने वालों को नगर बसाते देखा है। परंतु सटीक भावाभिव्यक्ति में यह शेर समर्थ नहीं हो सका है। पाठक के मन में सवाल उठ सकता है - जंगल में रहनेवालों (आदिवासियों) के नगर बसाने (सभ्य होने) पर इतनी आपत्ति किसलिए कि कवि सूरज को उजाला (ज्ञान, सत्य, यथार्थबोध) लेकर आने से रोक दे! प्रतीक के प्रयोग में यह सावधानी बेहद जरूरी है, तभी कवि की बात साधारणीकृत होकर जनता की बात बनती है।


दूसरी कविता है "आशावादिता' प्रथम अंश "वीराने में ...... फैल जाता है' में संघर्ष और हताशा का द्वंद्व आकर्षक है। बाह्य प्रेरणा (लहरें) और अंतर्मन पर उसकी प्रतिक्रिया से यह अंश संश्लिष्ट बन गया है और बिंब (दीपक की बाती का धुआँ-धुआँ होना, फूंक से लाल होना, लाल होकर सहमना तथा धुएँ का कसैला सा होकर फैलना) अर्थग्रहण में सहायक है। दूसरा अंश "मैंने देखा है ...... आत्मबल' पहले अंश का विस्तार है। यहाँ पाषाण और लहर का मानवीकरण पूरा होता है। लेकिन "आत्मसात' शब्द इस पूरे संदर्भ को गड्ड-मड्ड कर देता है। यहाँ न्योछावर होने, तदाकार होने, एक होने आदि को व्यक्त करनेवाले शब्द की आवश्यकता है। तीसरा अंश "ये कैसी ....... क्षुधा है' रचना को आरंभिक दो अंशों से अलग दिशा में ले जाता दिखाई देता है। मनुष्य के मन में छिपी हुई आशाओं-आकांक्षाओं और जिजीविषा का यही विस्तार अगले अंश में "मेरे मन ....... जाग रे' में भी दिखाई देता है। मरुस्थल का राग और हवाओं का मृदंग तथा अंतत: मुरदे के जागने का आह्वान - जैसे प्रयोग रचना को ओज गुण संपन्न बनाते हैं। परंतु अंतिम अंश में सारी प्रेरणा निरर्थक होती दिखाई गई है जो अवसादग्रस्त मन:स्थिति का द्योतक है तथा कविता के सारे ओज पर पानी फेर देता है। शब्द चयन और लय की दृष्टि से इस कविता पर "उर्वशी' (दिनकर) के कुछ अंशों का प्रभाव साफ दिखाई देता है। यही नहीं, जिजीविषा और हताशा का द्वंद्व भी पुरुरवा की याद दिलाता है।

तीसरी रचना 'गठबंधन आशाओं से' में अभिव्यक्ति काव्यात्मक नहीं है, निबंध जैसी है। काव्यात्मक अभिव्यक्ति के लिए तुकों की आवश्यकता उतनी नहीं होती, जितनी सौंदर्य विधान की। रचनाकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही होती है कि विचार को कविता में कैसे ढाला जाए। इसी के लिए अप्रस्तुत, प्रतीक, बिंब आदि का प्रयोग किया जाता है। इस कविता में जहाँ ऐसे किसी तत्वों का प्रयोग हुआ है वहाँ कवित्व आ गया है जैसे - विषधर रिक्त चंदन वन करने होंगे।

चौथी रचना है 'पराग और पंखुडियाँ'। अरहुल (गुड़हल) के सहारे जीवन के अनुभवों को अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया गया है। कथात्मकता का प्रयोग करके रचना को अनावश्यक रूप से फैला दिया गया है। कविता कम शब्दों में अधिक कहने की कला है, रचनाकार को इसे नहीं भूलना चाहिए वरना अच्छा भाव भी सपाट वक्तव्य बनकर रह जाता है। इसी प्रकार प्रतीक की व्याख्या करने से उत्पन्न काव्व्याभास के प्रति भी रचनाकार को सतर्क रहना चाहिए। प्रथम पंक्ति में "मेरे' के स्थान पर "मेरी' होना चाहिए, क्योंकि "बगिया' स्त्रीलिंग है।


पाँचवीं रचना 'आना तुम मेरे घर' पारंपरिक गीत है। शब्द चयन और उपमानों का प्रयोग आकर्षक है। आकुल आकाश, भीगा उल्लास, गुंजित मधुमास - सार्थक सह संबंध हैं। रचनाकार का लोक के प्रति आकर्षण इस गीत की नाभि है। लेकिन आधुनिक गीत की दृष्टि से इसमें नए क्षेत्रों का संधान भी जरूरी है।


छठी रचना 'ऐ मेरे हुजूर' परंपरागत भावभूमि पर ग़ज़ल के शिल्प में है। छठी पंक्ति में छंद दोष है। इसमें कहीं "सनम' जोड लें जैसे "पर भूल कर न करना सनम हुस्न पर गुरूर'। स्मरण रहे कि ग़ज़ल आज इन घिसे पिटे विषयों से बहुत आगे निकल गई हैं।


सातवीं रचना 'दाग' विद्रूप सामाजिक यथार्थ का दर्शन कराती है। प्रतीक का अच्छा निर्वाह है। भूख के बिछौने और अभाव की चादर जैसे प्रयोग सिद्ध करते हैं कि रचनाकार के भीतर कवित्व की संभावनाएँ प्रबल है। भाषा प्रयोग के प्रति सावधानी अपेक्षित है। "चंद्रमा के चमक' नहीं, "की चमक', "शहर की फुटपाथ' नहीं, "शहर के फुटपाथ'। इसी प्रकार "कूड़े के मलबे के पास' प्रयोग भी चिंत्य है।

आठवीं रचना 'तुमसे होना दूर कि जैसे' भी गीत है और इसमें भी लोक पक्ष अपने पूरे माधुर्य के साथ उभरकर सामने आया है। गीत की शीर्ष पंक्ति "तुमसे होना दूर कि जैसे टूटे कोई सम्मोहन' तनिक पुनर्विचार की अपेक्षा रखती है। यहाँ कथ्य संभवत: यह है कि 'तुम' से दूर होना असंभव है क्योंकि तुम्हारा आकर्षण किसी सम्मोहन के समान है, जिससे छूटा नहीं जा सकता, जो टूटे नहीं टूटता, जो दूरी बढ़ने पर बढ़ता जाता है, पीछा नहीं छोड़ता, लगातार 'हांट' करता है। यह अर्थ काफी चमत्कारपूर्ण है परंतु "टूटे' से यह अभिव्यक्त नहीं हो पा रहा है, क्योंकि इससे लगता ऐसा है जैसे कहा जा रहा हो कि तुम से दूर होना किसी सम्मोहन के टूट जाने के समान है, जबकि लगना ऐसा चाहिए था कि तुम से दूर होने पर तुम्हारे सम्मोहन के पाश, आकर्षण और बंधन का अहसास और अधिक सघन हो जाता है। वैसे यह अर्थ भी किया जा सकता है कि तुम से दूर होना वैसे ही असंभव है जैसे किसी सम्मोहन का टूटना लेकिन इस अर्थ में वह चमत्कार नहीं। यह भी ध्यान देने की बात है कि दूर होने पर यदि सम्मोहन टूटता लगता है तो इसमें कोई विरोधाभास नहीं है, विरोधाभास का सौंदर्य तब उभर सकता है जब यह कहा जाय कि तुम से दूर होने पर भी सम्मोहन टूटता नहीं। सच तो यह है कि निकट रहने पर सम्मोहन की उपस्थिति का आभास नहीं होता जबकि दूर रहने पर वह निरंतर अपनी उपस्थिति का आभास कराता है। (तुम्हारी देह मुझको कनक चंपे की कली है, दूर से ही स्मरण में भी गंध देती है - अज्ञेय)। शब्द संयोजन, प्रतीक विधान, उपमान योजना और लय प्रभावशाली है। पहले तीन बंधों में तीसरी पंक्ति में महके, दमके और खनके में जो ध्वनिस्तरीय समानांतरता है, चौथे बंध में "मोहे' में उसका निर्वाह नहीं किया गया है। इसी प्रकार इन्हीं पंक्तियों में चंदन, कुंदन और कंगन के क्रम में "संगम' रखा गया है। लेकिन ये दोनों ही बातें गीत को किसी भी प्रकार कमजोर नहीं करतीं।

नवीं कविता 'खुदा के जी में जाने क्या है' ग़ज़ल है । साधारण है । उड़ने वाले......समझौता है - उक्ति आकर्षक है । लेकिन - एक परिन्दे......होता है- का अर्थ अस्पष्ट है क्योंकि इसकी प्रथम और द्वितीय पंक्ति में सामंजस्य नहीं है, शाब्दिक चमत्कार भर है । वैसे सामाजिक यथार्थ के प्रति कवि का रुझान सराहनीय है ।

दसवीं कविता ग़ज़ल है - "आये बिना बहार की रवानी चली गयी'। रवानी, जवानी, कहानी के साथ दीवानी, हैरानी, वीरानी का प्रास (काफिया) पूरी तरह जमा नहीं। ग़ज़ल का कथ्य सामाजिक चेतना से युक्त है। कुछ अति प्रचलित शेरों का प्रभाव भी दिखाई देता है। "पूजा था ...... चली गई' का प्रतिपाद्य तो अपनी जगह ठीक है लेकिन क्या कवि को इस बात का ध्यान नहीं रखना चाहिए कि उसका कोई कथन अकारण किसी को चोट न पहुँचा दे। कृष्ण से मिलन न होने पर दीवानी मीरा के राणा के साथ चले जाने जैसा प्रयोग हिंदी की एक महान विद्रोही कवयित्री की अवहेलना और अवज्ञा जैसा प्रतीत हो सकता है। अपने मिथकों और इतिहास के नायक-नायिकाओं को विकृत करके पाठक का ध्यान आकर्षित करना अभिव्यक्ति का एक सरल मार्ग है, जिसका अच्छे रचनाकार को मोह नहीं होना चाहिए।


ग्यारहवीं रचना 'जीवन ' एक गीत है। कवि ने एकाकीपन, निराशा और दु:खों के बीच मन के हर्ष और चंचलतापूर्वक सक्रिय रहने का चित्रण किया है। रूपक का प्रयोग और चित्रात्मकता इस कविता की विशेषता कही जा सकती है। "पथ कंटकाकीर्ण है फिर भी' तथा "तू बावरा मेरा मन' में गतिभंग अखरता है। "पंकित' शब्द का प्रयोग भी चिंत्य है।


बारहवीं कविता 'श्रीराम और केवट' बालोपयोगी है। इसमें केवट के जन्म की पौराणिक पृष्ठभूमि की कथा सीधे विवरण के रूप में प्रस्तुत की गई है। छंद का निर्वाह अच्छा है।

तेरहवीं कविता 'कैसे थाम लूँ हाथ तुम्हारा' एक प्रेमगीत है जिसमें "मैं' और "तुम' के भेद को विविध उदाहरणों द्वारा समझाया गया है। छायावादी कवियों ने इस विषय पर उच्चकोटि की कविताएँ लिखी हैं। इस कविता में तुम को झरना और मैं को नदी का किनारा बताना कुछ समझ में नहीं आता। नदी तट भला झरने से संवाद करने क्यों जाएगा! अन्य युग्म भी कुछ खास असर नहीं पैदा कर सके।


चौदहवीं अर्थात इस सप्ताह की अंतिम कविता 'वाचाल मौन' में सामाजिक और मनोवैज्ञानिक यथार्थ को उकेरा गया है। अहं की अभेद्य दीवार किस प्रकार भाई-भाई के बीच संवादहीनता पैदा कर देती है, यह किसी से छिपा नहीं है। विषय वस्तु और प्रतीक दोनों ही सटीक हैं परंतु कविता के पाठ को कहीं-कहीं थोड़ा कसने की आवश्यकता है। वाचाल मौन, बड़बोला अहंकार, अशांत चुप्पी - आकर्षक प्रयोग हैं। "धाराशायी' को "धराशायी' करना होगा!


अंतत: यह बात ध्यान खींचती है कि इस सप्ताह की अधिकतर रचनाओं में लोक और संबंधों को किसी ने किसी रूप में कथ्य बनाया गया है। जीवन संघर्ष से जुड़ी रचनाओं में जिजीविषा की अपेक्षा हताशा का अधिक मुखर होना, सामाजिक दृष्टि से चिंताजनक प्रतीत होता है। गेय काव्यविधाओं के प्रति रचनाकारों का आकर्षण ध्यान खींचता है, तथापि मुक्तछंद की रचनाओं की धार की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती।


- डॉ . ऋषभदेव शर्मा
rishabhadeosharma@yahoo.com